Friday, November 13, 2009

अंतर्द्वंद

हम जाय रहल छी कतय सैह नहि बूझि रहल छी
तें अपने अन्तःमन सँ सदिखन जूझि रहल छी

अपने विचार अगले क्षण मिथ्या बुझा रहल अछि
तें हमरा आगाँ पाछाँ नहि सुझा रहल अछि
बैसल छी सोचबा लेल किच्छु नहि फुरा रहल अछि
सबटा विचार मनहिक भीतर घुरघुरा रहल अछि
हम किदन कहाँ छी बाजि रहल से बूझि रहल छी
अपने अन्तःमन................................................

प्रकृति संग मनमानी देखि अचंभित छी हम
प्रकृतिक पलट प्रहार सोचि बड विचलित छी हम
एकसर की क' सकबै तें चुपचाप रहै छी
मानवकृत अत्याचारक सब अभिशाप सहै छी
क्यौ ने सुननिहार अछि व्यर्थे भूकि रहल छी
अपने अन्तःमन............................................

लोकक देखि तमाशा मन अकबका रहल अछि
सम्बंधोक विचार न तें सकपका रहल अछि
नैतिकता केर ह्रास देखि छटपटा रहल अछि
आगाँ केर परिणाम सोचि कपकपा रहल अछि
हम बताह छी वा ओ से नहि बूझि रहल छी
अपने अन्तःमन..........................................

2 comments:

  1. bahut badhiya,,mann prasann bha gayl ...ahan k abhivyakti dekh k,,,ek dum ahi situation mein hum chhi ,,,,

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  2. ई हमर सौभाग्य जे लोक अपना कें हमर रचना सँ जोडि क' देखि रहल अछि. ई कोनो रचनाकार लेल सब सँ पैघ बात होइत छैक

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